सुनो.......
दिल ने कई बार चाहा
तुमसे मिलने का
मन भी बार-बार होता है
बात करने का
पर दिल तो दिल है ना
चाहता रहता है
लेकिन--
मैं अब इस दिल को
काबू कर लेना जानती हूँ
स्वयं के गुने सपनों में
मिल लेती हूँ तुमसे
बातें भी कर लेती हूँ
धीरे से तुम्हारे ललाट को
सहलाकर--
चुम्बन भी ले लेती हूँ
उन्हीं गुंथे हुए अपने
सपनों के मध्य
पूछ लेती हूँ तुमसे
कैसे हो तुम ?
अनेकों बार उसका
उत्तर सहज मिल जाता है
मगर कई बार तो नही भी
हो सकता है--
शायद,
मेरी उस स्तर तक
प्रेम की साधना है जो
नहीं पहुँच पाती हो
जहाँ से तुमको आवाज दे सकूं
अपने नयनों को बंद करते ही
मिल सकूं तुमसे मैं।
हाँ, मैं चाहती हूँ
कि एक हल्का-सा हवा का
झौंका आये
और तुम्हारे कानों में
कह जाये मेरी सारी बातें
कि-मैं तुमसे और सिर्फ
तुमसे प्यार करती हूँ
तुम्हारे माथे में पर ये
टपकती जल की जो बूंदों है
चूमना चाहती हूँ
तुम्हारे आँखों पर रख देना
चाहती हूँ
अपने 'ख्वाबों की पोटली'
हो जाना चाहती हूँ
तुमसे एकाकार
सुनो....
मैं अपने इस प्यार को
उस अवस्था तक ले जाना चाहता हूँ
तुम्हारा एहसास हो
जीवन के अंतिम पड़ाव तक।।
डॉ. पल्लवी सिंह 'अनुमेहा' लेखिका एवं कवयित्री बैतूल, मध्यप्रदेश
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