लक्ष्मी सिन्हा:- महाक्रांती न्यूज नेटवर्क
बिहार पटना:- जहां बल प्रयोग ही मर्दानगी को जताने का उत्तम तरीका माना जाता रहा है। यह मर्दानगी का भ्रम ही है, जो दुष्कर्म, हत्या, हिंसा के रूप में सामने आती रहती है, कभी परंपरा, कभी दहेज, कभी चरित्र तो कभी डायन करार देकर स्त्रियों को जलाए जाने की घटनाओं का सिलसिला न जाने कब से कायम है। यह बातें एक कार्यक्रम के दौरान समाजसेवी श्रीमती लक्ष्मी सिन्हा ने कहा उन्हें आगे कहा कि बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ की मंशा को आत्मसात करने की बात तो की जाती है, लेकिन बेटियों को व्यवस्था की भेंट चढ़ने से हम रोक नहीं पा रहे हैं। लड़की पैदा नहीं होती, बल्कि बनाई जाती है।
एक बेटी के जन्म के बाद से जिस तरीके से लड़की होने की दुहाई देकर उसकी परवरिश की जाती है, धीरे-धीरे उसमें विरोध की क्षमता ही खत्म हो जाती है और वह शोषण सहना ही अपनी नियति समझ लेती है। आज भी आमतौर पर बेटी को मायके से यह कह कर विदा किया जाता है कि मायके से डोली उठाती है और ससुराल से अर्थो। और डोली उठते ही लड़की का या तो मायके होता है या फिर ससुराल, उसका खुद का घर कहां खो जाता है, वह पता हीं नहीं चलता, जहां वह हक से और अपने हिसाब से अधिकारपूर्वक रह सके।
ऐसी स्थिति में यदि कोई महिला आत्मनिर्भर नहीं है तो वह चाह कर भी विरोध नहीं कर पाती है। दूसरा लोक-लाज के लिहाज के बोझ तले महिलाएं आज भी दबी हुई है। उनका दबा होना महिला शक्तिकरण की बातों को खोखली साबित करता दिखता है। इस परिस्थिति में यदि कोई महिला विरोध करने की हिम्मत जुटा भी लेती है तो व्यवस्था का शिकार हो जाती है। अपने देश में पीडि़त न्याय के लिए आज भी थानों और अदालतों में ठोकर खाते हैं। महिलाओं को न्याय देने के लिए वन स्टाप सेंटर बनाए गए, महिला आयोग का गठन किया गया, लेकिन वे प्रभावि नहीं सिद्ध हो रहे हैं।
कई बार अपराधी बेखौफ हो दिखते हैं और व्यवस्था धवस्त। दहेज लेना और देना, दोनों ही कानूनन अपराध है, लेकिन यह जुल्म सदियों से किसी-न-किसी रूप में आज भी समाज में व्याप्त हैं। आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? आमतौर पर हर माता-पिता चुपचाप बेटी के ससुराल वालों की मनचाही इच्छाओं को पूरा करते रहते हैं और एक तरह से खुद भी अपराधी बन जाते हैं। लाचार और मजबूर माता-पिता को यह अहसास ही नहीं होता कि दहेज प्रथा की आड़ में वे कई अपराधों की नींव रख रहे हैं। अनजाने में वे अनचाही मांगों को पूरा करते रहते हैं और बेटी के घर को बचाने की कोशिश करते रहते हैं। वे न तो इसकी शिकायत करते हैं और न ही बेटी पर हो रहे अत्याचार को तब तक रोकने की पहल करते हैं, जब तक की आग की लपटें उनके घर तक न पहुंच जाए।
यदि कागजों में कैद नियमों को धरातल पर सही से उतर जाए तो शायद परिदृश्य कुछ और होगा और बेखौफ अपराधी अपराध को अंजाम देने के पहले हजार बार सोचेंगे। जब ऐसा होगा तभी हमारे समाज में लोग बेटियों को बचा पाएंगे और पढ़ पाएंगे। आगे श्रीमती लक्ष्मी सिन्हा ने कहा कि यह ठीक है कि आज की महिलाएं पहले की तुलना में काफी क्षमतावान हो चुकी है। उनके पास तकनीकी की ताकत है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। उनके हाथों में ऐसी शक्ति है, जिससे वे अपनी बातों को दूर तक पहुंचा सकती हैं, परंतु दुर्भाग्यवश आज की तमाम महिलाएं फैशन में तो अपडेट रहती है, लेकिन अपने अधिकारों के प्रति अपडेट नहीं हो पाई।
वे यह नहीं पूछ पाई की आखिर पुरुषों की लंबी उम्र की कामना बहन, मां या पत्नी ही क्यों करें? पति, भाई या पिता क्यों नहीं ऐसा करते? पतिव्रता पत्नी ही क्यों बने, पति पत्नीव्रता क्यों ना बने? डायन बात कर आखिर महिला को क्यों मार दिया जाता है? यह अंधविश्वास कब खत्म होगा? इसके लिए सरकार के साथ-साथ समाज को भी जागरूक होना होगा तभी हम महिलाओं पर हो रहे अपराध को रोक सकते हैं।


