‘अजल ढूंढ रही हूँ मैं’ शीर्षक की यह कविता कवयित्री के गहन आत्म-संघर्ष और अस्तित्व के सवालों को बयां करती है। यह कविता दिखाती है कि मनुष्य अपनी जिंदगी में क्या-क्या ढूंढता है।
आशा और निराशा का द्वंद्व:
कविता की शुरुआत आशा के साथ होती है, “है तमस प्रचुर पर चल रही हूँ मैं”, जो कवयित्री के संघर्षशील स्वभाव को दर्शाती है। फिर, वे कई विरोधाभासी बातें कहती हैं, जैसे कि “किसी को हाथ थामने न दिया फिर क्यूँ कंधा ढूंढ रही हूँ मैं”, जो उनके मन के भीतर के द्वंद्व को दिखाता है।
अस्तित्व की खोज:
इस कविता की मुख्य बात यह है कि कवयित्री अपनी पहचान और अपनी मंजिल को ढूंढने की कोशिश कर रही हैं। वे अपनी ही परछाई के साथ नहीं हैं, फिर भी एक साथी की तलाश में हैं।
दार्शनिक गहराई: कविता में दार्शनिक भाव भी है, जब वे कहती हैं “स्वयं ही नही जानती जाने क्या ढूंढ रही हूँ मै”। यह मनुष्य के जीवन की अनिश्चितता और उसके अंतहीन खोज को दिखाता है।
कविता में “चार दिन की नन्हीं-सी ज़िन्दगी है ‘मेहा’ और स्वयं के लिए अजल ढूंढ रही हूँ मैं” यह पंक्ति जीवन की नश्वरता को दर्शाती है। “अजल” का अर्थ है वह जो कभी खत्म न हो, यानी अमरता। कवयित्री यह जानती हैं कि जीवन छोटा है, फिर भी वे कुछ ऐसा ढूंढ रही हैं जो हमेशा के लिए हो।
यह कविता, एक गहरे भावनात्मक और दार्शनिक अनुभव को प्रस्तुत करती है।

