अर्चना आनंद:- गाजीपूर ( उत्तरप्रदेश )
कुम्हार ने चाक का चक्र चला,
मृतिका की एक मूर्ति बनाई।
दया,धर्म, सत्य जैसे,
उसे सात्विक गुणों से सजाई।
फिर उसमें अपना अंश डाल,
उसे जीवंत कराई।
नाम रखा उसका मानव।
प्रजापति द्वारा प्रदत्त पराक्रम को पाकर, इस बेजान सी मूरत में,जान आ गई।तब उसने अहंकार का आतिथ्य ग्रहण कर,अंधकार( अज्ञान ) का आवरण ओढ़ लिया।
इस अहमता ने इसमें, लोभ,मोह का बीज बो दिया। जिससे कामनाओं की उत्पत्ति हुई। इसकी तृप्ति न हुई तो दारुण दुःख उत्पन्न हुआ।
इस तरह ‘इस दर्द की दवा’, ‘खुशी की खोज’ का मानव मुसाफिर बन गया।
उसे क्या पता ?
जिसकी वो खोज कर रहा है, वही उसके दुःख का कारण है।
मत भूलो कि हिंदुस्तान राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर की धरती है। यहां इनके ज्ञान की ज्योति जलती है। पश्चिम का दर्शन ‘अंधकार’ के अ से निवृत्ति का मार्ग बताता है।
पर जम्बूद्वीप की ज्योति अंधकार के ‘र’ को रश्मि में परिणित कर अज्ञान के अंधकार का पूरी तरह से अवसान कर देती है।
यहां महावीर का पंचशील मानव को मोक्ष तक ले जाता है तो अनेकांतवाद सत्य को समझने के अनेक दृष्टिकोणों से परिचित कराता है।
खुशी की खोज में, जिस मानव ने दुःख को ही अपना नियति बन लिया, बुद्ध ने उसके निवारण का तो 12 साल तक जैसे अनशन ही कर लिया था। अंततः गया में उन्होंने ज्ञान की वो आभा पाई, जिससे भारत ही नहीं विश्व के अन्य देश भी उनके करुणा के कायल हो गए।
यदि भगवान राम ने हमें मर्यादा की महत्ता समझाई तो कृष्ण ने, बांसुरी, चक्र और गीता ज्ञान से हमें प्रेम, भक्ति और ज्ञान की वो गरिमा बताई, जिससे मानव मोह दशा से मुक्त हो, अपने कर्मों से मोक्ष का मार्गी बन जाता है।
लेकिन हम अपने हीरोज भूल गए हैं। और पश्चिम को ही अपना नायक मान बैठे हैं।
हम समाज की सड़ी गली सोच और अज्ञान में आकंठ डूबे रहते हैं। पर पश्चिमी कपड़े और रहन सहन अपनाकर, अपने को आधुनिक होने का दंभ भरते हैं।
सत्य का साधक ही सही मायने में आधुनिक हो सकता है। क्योंकि, वह किसी भी धारणा, परंपरा और सोच को सिर्फ इसलिए नहीं अपना लेता कि उसके पीछे एक बहुत बड़ी भीड़ है। उसे वह सत्य की कसौटी पर कसेगा। जब वह खरे सोने की तरह तप कर बाहर निकलेगा, तब उसको अपने जीवन में धारण करेगा।
लेकिन सत्य का अनुगामी होना, इतना आसान नहीं। क्योंकि मानव की मोह की जो वृत्तियां होती हैं, वो बड़ी ही शक्तिशाली होती हैं। वो अपने जाल में बार बार इंसान को फंसा लेती हैं। जिससे मनुष्य बार बार दुःख पाता है।
भरत नाम के ऋषि थे, वो अपने आश्रम में सदैव जप तप में लीन रहते थे। आत्मज्ञानी भी थे। उन्हें एक हिरण के बच्चे से मोह हो गया। अब वो ज्यादा समय उसी के ध्यान और देखभाल में रहने लगे। ऐसा कहा जाता है कि वो इसी कारण मोक्ष से चूक गए। और अगला जन्म उनका हिरण योनि में हुआ।
हम मानव अपने दुःख का कारण जानते हुए भी, उसे मोह वश पकड़े रहते हैं। और उसके निवृत्ति के मार्ग का अनुसरण नहीं करते हैं।

