अर्चना आनंद गाजीपुर उत्तर प्रदेश
मन बिखरा तो, बिखरे रिश्ते।
ये बता रहे हैं जग को,
कि मनुष्य हो गए हैं कितने सस्ते।।
हमारा समाज शुरू से ही पितृसत्तात्मक रहा है। जहां परिवार में पुरुष को ही प्राथमिकता दी जाती रही है।
जिसका ख़ामियाजा महिलाओं को शुरू से ही भुगतना पड़ा है। एक इंसान के विकास की सारी संभावनाएं उससे छीन ली गई। और उन्हें घर की चहारदीवारी में बांधकर, चूल्हा- चौका और प्रजनन तक ही सीमित कर दिया गया।
ईश्वर ने शारीरिक तौर पर मनुष्य की दो ही प्रजाति बनाई –
स्त्री और पुरूष। दोनों के विकास की संभावनाएं बराबर हैं। ‘हां’ ,रुचि के आधार पर कार्य क्षेत्र में विभिन्नता हो सकती है।
यह तथ्य है कि महिलाओं को सुरक्षा और इज्जत के नाम पर, एक लंबे समय तक शिक्षा और उनके संभावित विकास से रोका गया। लेकिन यह भी सच है कि कुछ पुरुषों द्वारा ही, इनके अधिकारों की एक लंबी लड़ाई भी लड़ी गई।
अब तो सरकार द्वारा महिलाओं के अधिकारों और सुरक्षा के लिए कई कानून भी बनाए गए हैं।
इतना कुछ होने के बाद भी महिलाओं पर होने वाले अत्याचार अब भी बंद नहीं हुए हैं। लेकिन इनकी स्थिति में पहले की अपेक्षा अब काफ़ी सुधार जरूर हुए हैं।
अब उच्च स्तर की शिक्षा ग्रहण कर, वो हर क्षेत्र में काम करने लगी है। ‘हां’, अभी भी इनका प्रतिशत पुरुषों की अपेक्षा कम जरूर है। अशिक्षा और गांवों की स्थिति का भी इसमें बहुत बड़ा योगदान है।
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। किसी भी अच्छे कार्य को आरंभ करने के पीछे, हमारी मंशा चाहे जितनी भी साफ क्यों न हो, समय, समाज की विकृतियों और मानव की वृत्तियों की वजह से उसमें कुछ नकारात्मक पहलू और बुराइयां जुड़ ही जाती हैं।
सरकारी, गैर सरकारी संगठनों और समाज के कुछ सुधारकों द्वारा नारी स्थिति में सुधार के लिए काफ़ी प्रयास किए गए। उसके आशाजनक परिणाम भी देखने को मिले हैं। अब महिलाएं, बेटियां अपने अधिकारों को लेकर जागरूक भी हैं। ये अच्छी बात है।
लेकिन, चाहे कोई महिला हो या पुरुष किसी को भी अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर, किसी पर अत्याचार करने, किसी को सताने का कोई हक़ नहीं है।
अब तक तो महिलाएं ही हिंसा का शिकार होती रही हैं।
उनको ही पीड़िता माना जाता रहा है।
महिलाओं को ममता, करुणा और वात्सल्य की मूर्ति माना जाता रहा है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से हमारे समाज में ऐसी घटनाएं देखने को मिल रही हैं, जो इनके, इस छवि पर कुठाराघात है। हाल के ही कुछ दिनों में, कुछ पत्नियों ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर, कुछ की हत्या कर दी तो किसी ने पत्नी के अत्याचार से पीड़ित होकर, फांसी लगा ली। हालांकि इनका प्रतिशत बहुत कम है। अब भी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं पर अत्याचार के मामले ज्यादा हैं।
अब भी बेटियों के सुरक्षा के मामले उतने ही संवेदनशील हैं। अब भी बेटियां शहरों और रात के अंधेरे में सुरक्षित नहीं हैं। अब भी मां – बाप, भाई उनके घर से बाहर रहने पर चिंतित रहते हैं। लेकिन इससे पुरुषों पर होने वाले अत्याचार को वैधता नहीं मिल जाती।
आख़िर क्या कारण है कि जिन महिलाओं को हृदय से कोमल माना जाता रहा है, वो इतना क्रूर कैसे हो गईं।
जो ममता, वात्सल्य की मूर्ति थी।
अपने अरमानों से रिश्ते सिलती थी।
क्यों करुणा उसकी, इतनी सिमट गई?
क्यों हिंसा से जा वो लिपट गई?
क्या पाप, प्रेम को खा गया ?
क्या प्रलय सृष्टि का आ गया ?
सावित्री, जो कभी सत्यवान की ढाल बनी।
यम से भी उसकी जा ठनी।
आज पत्नी क्यों ?
पातिव्रत्य से पतित हुई।
क्यों ? कांता ही हंता, अब हाय हुई।
क्या पवित्रता पर पतन, अब गहरा गया ?
क्या प्रलय सृष्टि का आ गया ?
ज्वालामुखी के विस्फोट होने की प्रक्रिया, एक ही दिन की नहीं होती है। पृथ्वी के अंदर दबा लावा, भाप से जब बहुत ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है तो धरती के सीने को चीरकर बाहर निकल आता है, और अपार जन- धन की हानि करता है। कहीं यही प्रक्रिया यहां भी तो नहीं हो रही।
सदियों से इन्हें दबाया जाता रहा है,अब इनके हाथ में थोड़ी शक्ति आ गई है। कहीं ये विस्फोट उसी का परिणाम तो नहीं है। कहीं वो प्रतिशोध लेने पर तो आमादा नहीं हो गई है। यह सत्य है कि शक्ति को दबाने का परिणाम बुरा होता है, यदि उसे सही दिशा न दी जाय। ऐसी अनेक बातें मन में कौंध रही है।
हर बीज में एक पेड़ की संभावना दबी रहती है। यदि उसे समुचित वातावरण उपलब्ध कराया जाय तो वह एक विशाल ,मजूबत और फलदार पेड़ बनता है । नहीं तो रुग्ण हो जाता है और आस पास के पौधों को नुकसान पहुंचाता है।
यही बात हम मनुष्यों पर भी लागू होती है। चाहे कोई स्त्री हो या पुरुष।
हर जन्म लेने वाले बच्चे में विकास की संभावनाएं छिपी रहती हैं। यदि उसे शुरू से ही समुचित वातावरण उपलब्ध कराया जाय, उनमें अच्छे संस्कार डाले जाय तो वह एक अच्छा इंसान बन सकता है। नहीं तो, वो समाज के लिए रुग्ण ही साबित होगा।
समाज से इस तरह की घटनाओं को मिटाने और एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए, जरूरत है कि हमारा समाज अच्छे इंसानों द्वारा निर्मित हो।
यदि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को एक अच्छा संस्कार दे, तभी एक अच्छे समाज के निर्माण में अपना योगदान दे सकते हैं, और यह तभी होगा, जब हमारा खुद का जीवन संस्कारित होगा। हम सच में आधुनिक होंगे, न कि आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी लिबास का चोंगा ओढ़ लें। हमें सत्य की समझ होगी। हमारे अंदर प्रेम, करुणा और ईमानदारी होगी। हम मनुष्यों में जाति, धर्म और ऊंच नीच के आधार पर विभेद नहीं करेंगे। तभी हम बच्चों को अच्छा संस्कार दे पाएंगे।
परिवार में एक ऐसा माहौल बनाएं, जहां बच्चे अपनी बातें, अपनी परेशानियां खुलकर अपने माता पिता और बड़ों से कर पाएं। उनका मार्गदर्शन करें, उनके प्रॉबलम के निराकरण में सहयोग दें। जाति, झूठी इज्ज़त और सामाजिक विकृतियों से अपने बच्चों की जिंदगी को न तोलें। अपनी पुरानी और दकियानूसी सोच से बाहर आएं। सत्य को अपने जीवन में धारण करें और अपने बच्चों में भी उसके बीज बोएं। ताकि वो अपने काम, और रिश्ते के चुनाव में सत्य, असत्य की परख कर पाएं ।तभी हम समाज से इस तरह की घटनाओं को मिटाने और एक स्वस्थ समाज के निर्माण में सफल हो पाएंगे।
सत्य के साधक बन जाओ
समाज अपने आप सुधर जाएगा।
स्वार्थ की बलि चढ़ा दो,
रिश्ता अपने आप संवर जाएगा।।

