स्वरचित मौलिक अर्चना आनंद गाजीपुर उत्तर प्रदेश
जमाना क्या जाने,
सांचे प्रेम की परिभाषा।
उसमें तो विरह मिलते हैं बेतहाशा।।
यादों में उसके सारी उम्र कट जाती है।
दर्द हजार होते हैं,
पर उफ ! तक ना आती है।
ना शिकवा, ना शिकायत,
ना कुछ पाने की चाह होती है।
फिर भी उर में,
एक अनजानी सी आह होती है।
प्रेम में उसके दिल,
रहता है पपिहा सा प्यासा।
जमाना क्या जाने,
सांचे प्रेम की परिभाषा।।
जा राधा से पूछो,
उसने कितनी रातें जागकर बिताई।
मोहन की मीरा से पूछो,
वो जा मूर्ति में कैसे समाई।
सांसे अटके रहती हैं,
उसकी एक झलक पाने की आशा।
जमाना क्या जाने,
सांचे प्रेम की परिभाषा।।
ऐ दुनिया वालों !
यूं ही प्रेम के नाम पर,
तू किसी की जान न ले।
जान लेना ही है तो,
उसे प्रेम का नाम ना दे।।
क्यों लगाता है ?
तू प्यार पर ये तोहमत।
होती नहीं है,
तू जान ले ये मोहब्बत।।
मेंहदी सा मिटकर,
उसकी मुक्कदर को,
महताब करना पड़ता है।
प्रेम तो बस परमात्मा का,
दूसरा नाम होता है।।
इसे जाना वही,
जो इसे जां देकर तराशा।
जमाना क्या जाने,
सांचे प्रेम की परिभाषा।








